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आ तू न॑ इन्द्र कौशिक मन्दसा॒नः सु॒तं पि॑ब। नव्य॒मायुः॒ प्र सू ति॑र कृ॒धी स॑हस्र॒सामृषि॑म्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā tū na indra kauśika mandasānaḥ sutam piba | navyam āyuḥ pra sū tira kṛdhī sahasrasām ṛṣim ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। कौ॒शि॒क॒। म॒न्द॒सा॒नः। सु॒तम्। पि॒ब॒। नव्य॑म्। आयुः॑। प्र। सु। ति॒र॒। कृ॒धि। स॒ह॒स्र॒ऽसाम्। ऋषि॑म्॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:10» मन्त्र:11 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:20» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:3» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर परमेश्वर कैसा और मनुष्यों के लिये क्या करता है, इस विषय को अगले मन्त्र में प्रकाश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे (कौशिक) सब विद्याओं के उपदेशक और उनके अर्थों के निरन्तर प्रकाश करनेवाले (इन्द्र) सर्वानन्दस्वरूप परमेश्वर ! (मन्दसानः) आप उत्तम-उत्तम स्तुतियों को प्राप्त हुए और सब को यथायोग्य जानते हुए (नः) हम लोगों के (सुतम्) यत्न से उत्पन्न किये हुए सोमादि रस वा प्रिय शब्दों से की हुई स्तुतियों का (आ) अच्छी प्रकार (पिब) पान कराइये (तु) और कृपा करके हमारे लिये (नव्यम्) नवीन (आयुः) अर्थात् निरन्तर जीवन को (प्रसूतिर) दीजिये, तथा (नः) हम लोगों में (सहस्रसाम्) अनेक विद्याओं के प्रकट करनेवाले (ऋषिम्) वेदवक्ता पुरुष को भी (कृधि) कीजिये॥११॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य अपने प्रेम से विद्या का उपदेश करनेवाला होकर अर्थात् जीवों के लिये सब विद्याओं का प्रकाश सर्वदा शुद्ध परमेश्वर की स्तुति के साथ आश्रय करते हैं, वे सुख और विद्यायुक्त पूर्ण आयु तथा ऋषि भाव को प्राप्त होकर सब विद्या चाहनेवाले मनुष्यों को प्रेम के साथ उत्तम-उत्तम विद्या से विद्वान् करते हैं॥११॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृशः, किं करोतीत्युपदिश्यते।

अन्वय:

हे कौशिकेन्द्रेश्वर ! मन्दसानः संस्त्वं नः सुतमापिब, तु पुनः कृपया नो नव्यमायुः प्रसूतिर तथा नोऽस्माकं मध्ये सहस्रसामृषिं कृधि सम्पादय॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (तु) पुनरर्थे। अत्र ऋचि तुनुघमक्षु० इति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (इन्द्र) सर्वानन्दस्वरूपेश्वर (कौशिक) सर्वासां विद्यानामुपदेशे प्रकाशे च भवस्तत्सम्बुद्धौ, अर्थानां साधूपदेष्टर्वा। क्रोशतेः शब्दकर्मणः क्रंशतेर्वा स्यात्प्रकाशयतिकर्मणः साधु विक्रोशयिताऽर्थानामिति वा। (निरु०२.२५) अनेन कौशिकशब्द उक्तार्थो गृह्यते। (मन्दसानः) स्तुतः सर्वस्य ज्ञाता सन्। ऋञ्जिवृधिमन्दि० (उणा०२.८४) अनेन मन्देरसानच् प्रत्ययः। (सुतम्) प्रयत्नेनोत्पादितं प्रियशब्दं स्तवनं वा (पिब) श्रवणशक्त्या गृहाण (नव्यम्) नवीनम्। नवसूरमर्तयविष्ठेभ्यो यत्। (अष्टा०५.४.३६) अनेन वार्त्तिकेन नवशब्दात् स्वार्थे यत्। नव्यमिति नवनामसु पठितम्। (निघं०३.२८) (आयुः) जीवनम् (प्र) प्रकृष्टार्थे क्रियायोगे (सु) शोभार्थे क्रियायोगे। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (तिर) संतारय। तरतेर्विकरणव्यत्ययेन शः। ॠत इद्धातोरितीकारः। (कृधि) कुरु। अत्र श्रुशुणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसीति हेर्धिर्विकरणाभावः। (सहस्रसाम्) सहस्रं बह्वीर्विद्याः सनोति तम् (ऋषिम्) वेदमन्त्रार्थद्रष्टारं जितेन्द्रियतया शुभगुणानां सदैवोपदेष्टारं सकलविद्याप्रत्यक्षकारिणम्॥११॥
भावार्थभाषाः - ये मनुष्याः प्रेम्णा विद्योपदेष्टारं जीवेभ्यः सत्यविद्याप्रकाशकं सर्वज्ञं शुद्धमीश्वरं स्तुत्वा श्रावयन्ति, ते सुखपूर्णं विद्यायुक्तमायुः प्राप्यर्षयो भूत्वा पुनः सर्वान् विद्यायुक्तान् मनुष्यान् विदुषः प्रीत्या सम्पादयन्ति॥११॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जी माणसे प्रेमाने विद्येचा उपदेश करणारी असतात, अर्थात जीवांसाठी सर्व विद्यांचा प्रकाश करतात, सदैव पवित्र परमेश्वराची स्तुती करून त्याचा आश्रय घेतात, ती सुखपूर्वक विद्यायुक्त दीर्घायुषी बनून ऋषिभावाने सर्व विद्या शिकणाऱ्यांना प्रेमाने उत्तम उत्तम विद्या शिकवून विद्वान करतात. ॥ ११ ॥